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दौर कैसा आ गया,
हर आदमी हैरान है,
लोग तो हैं अनगिनत,
पर कहाँ इंसान है.
सब बड़े-बुजुर्ग हमारे,
इस तरह हैं दरकिनार,
जिस तरह घर में पड़ा,
फालतू सामान है.
अब कहाँ मिलने की फुर्सत,
दोस्तों के पास है,
भूले-भटके आ गए जो,
यह बड़ा एहसान है.
हमने माना वक़्त की,
किल्लत बहुत है दोस्तों,
खैरियत पर फोन से,
लेना बहुत आसान है.
उम्र भर माँ-बाप का,
बेटी रखती है ख्याल,
कैसे मानूँ मैं भला,
बेटी तो बस मेहमान है.
क़त्ल-गारत पर अमादा,
क्यों हैं जाने आज हम,
क्या हमारा बाप-दादा,
दोस्तों शैतान है.
अपने ही माँ-बाप को,
इक दिन नहीं पहचानते,
हमसे अच्छा तो यक़ीनन,
पालतू हैवान है.
हर जगह सीमेंट की,
बस्ती बनाना छोड़िये,
मुल्क का सरमाया तो,
खेत व खलिहान है.
रात-दिन पैसे की खातिर,
बेचता ईमान जो,
वह नहीं कोई गरीब,
वह तो बस धनवान है.
जम्हूरियत में वोट देना,
हक़ भी है और फ़र्ज़ भी,
जनता का सबसे बड़ा,
हथियार तो मतदान है.
है जहाँ मजहब का मेला,
होता भाषाओँ का मेल,
“राज” ऐसा मुल्क जग में,
सिर्फ हिन्दुस्तान है .
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