- 55 Posts
- 161 Comments
गीदड की सौ साल की जिंदगी से, शेर की एक दिन की जिंदगी अच्छी है,
पता नहीं उनको शर्म आ रही है या नहीं पर मुझे तो आ रही है,
सी.ओ.जियाउलहक अपनी ड्यूटी करते हुए शहीद हो गए,
उनके साथियों को खरोंच भी नहीं आई,
उनका गनर (अंगरक्षक) बच गया,
आज शहीद जियाउलहक के घर मातम पसरा है,
लेकिन उन कायरों के घर जरूर जश्न का माहौल होगा,
जो अपने साथी को मौत के मुंह में छोड़ कर चले आए,
जिन्हें अपनी वर्दी का मान प्यारा नहीं था,
जिन्हें कायरता का दाग लेकर जीना तो मंजूर था ,
लेकिन एक शहीद की मौत पसंद नहीं थी।
उन कायरों के घर जरूर जश्न का माहौल होगा,
क्योंकि उनकी जान बच गई है़…………………………..
ऐसी जान ,ऐसी जिंदगी जिसपर दुनिया की लानत है,
मुझे नहीं लगता कि उनका घर , उनका परिवार,
कभी ……………कभी सर उठाकर चल सकेगा,
ऐसे कायरों के मां–बाप क्या कभी किसी से नजर मिला सकेंगे,
क्या इनके बच्चे शान से कह सकेंगे कि उनके पापा पुलिस हैं,
क्या इनके रिश्तेदार उनको अपना परिचित बता सकेंगे,
क्या इन नामर्दो के साथ उनकी बीबियां रह सकेंगीं,
यह लोग जनता की सुरक्षा तो दूर अपने बाल–बच्चों और अपनी सुरक्षा तक नहीं कर सकते।
अगर कोई व्यक्ति कायर है तो वह एक मुर्दे के समान है जो किसी की रक्षा नहीं कर सकता।
ऐसे व्यक्ति पर भरोसा करना , ऐसे व्यक्ति को कोई जिम्मेदारी देना अपने पैर पर कुल्हाड़ी
मारना है।
एक वक्त था जब हमारी मां –बहनें जंग पर जाते हुए अपने पति,पिता, भाई ,बेटे को यह कहकर भेजती थी कि युद्ध में जान भले चली जाए,लेकिन पीठ फेर कर मत भागना,
पुलिस की नौकरी भी ऐसी ही नौकरी है,जहां ड्यूटी पर हर पुलिस वाला युद्ध के मैदान में
होता है,
जब वह घर से निकलता है तो उसे पता नहीं होता कि वह घर वापस आएगा,
हमारे देश का फौजी सीमा पर जाता है तो यह सोच कर नहीं जाता कि वक्त पड़ने पर
पीठ दिखाकर अपने साथियों को मुसीबत में छोड़कर अपनी जान बचा लेगा।
फिर यह क्या हुआ कि जियाउलहक को छोड़कर उनके साथी भाग खड़े हुए।
क्या वह पुलिस में यह सोच कर आए थे कि यहां ऐश करेंगे ?
क्या जियाउल हक के साथ गई पुलिस टीम में सारे के सारे नामर्द थे ?
या यह समझ लिया जाए कि सरकार ने नामर्दों को भी पुलिस में भर्ती करना शुरु कर दिया ?
जिनको अपनी जान प्यारी है उनके लिए पुलिस सेवा नहीं है,
अगर सरकार ने उनको बुलाकर नौकरी नहीं दी तो इन नामर्दों को पुलिस में आने की जरुरत
क्या थी,कहीं फुटपाथ पर दुकान लगाकर भी ये लोग अपना पेट भर सकते थे।
बड़ा अहम सवाल है कि क्या ऐसे पुलिस वालों से कर्तव्य पालन की उम्मीद की जा सकती
है,क्या यह लोग देश–समाज के हित में हैं,
लगता है कि पुलिस में आने के पीछे इन लोगों की मंशा धन कमाना या अपराधियों की
सेवा करनी है , तो फिर क्या ऐसे पुलिस वालों को सरकारी वर्दी देकर अराजकता पैदा करने के लिए खुला छोड़ दिया जाए ?
वास्तव में ऐसे नामर्दों को सिपाही कहना भी मुनासिब नहीं क्योंकि सिपाही शब्द अपने आप
में बेहद गर्वपूर्ण शब्द है, इस शब्द का उच्चारण करते ही एक योद्धा की तस्वीर आंखों के सामने आ जाती है,जिसके लिए मन में सम्मान का भाव उत्पन्न हो जाता है।स्पष्ट है कि प्रतापगढ़ में जो हुआ उसके बाद उन कायरों को सिपाही कहना ,सिपाही शब्द का अपमान है।
सिपाही की वर्दी में छुपे ऐसे गीदड़ों की पहचान आवश्यक है, ताकि पुनः ऐसी घटना न होने पाए और खाकी वर्दी को फिर शर्मसार न होना पड़े,हालांकि शहीद जियाउलहक जैसे जांबाजों के रहते खाकी वर्दी का सम्मान सुरक्षित है।
Read Comments