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इन्सान तो इन्सान ही है(ग़ज़ल)

mera desh
mera desh
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रंग कोई भी हो इन्सान तो इन्सान ही है,
फर्क जो इनमें करे शख्स वो हैवान ही है.
मज़हबो-फिरका के खाने में बँटी है दुनिया,
इस सियासत का नुमाइन्दा तो शैतान ही है.
हक की आवाज़ उठाने पे सजा हमको मिले,
और वो क़त्ल भी करता है तो नादान ही है.
छीन लेता है निवाला जो हमारे मुंह से,
भूका-नंगा नहीं वो दोस्तों धनवान ही है.
कोई मौसम हो नहीं घर में जगह उनके लिए,
बूढ़े बाबा के लिए सिर्फ ये दालान ही है.
प्यार की बात है शिकवा व शिकायत कैसी,
हो सितम लाख सही यार मेहरबान ही है.
“राज” वो दौर है अपना के नहीं दोस्त कोई,
कोई आ जाये जो मिलने को तो एहसान ही है.

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*हैवान–जानवर/*मज़हबो-फिरका–धर्म-सम्प्रदाय/
*खाने–घर/*भूका–भूखा.

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